फल की विशेष आसक्ति से कर्म करने की ताकत एवं मनोबल प्राप्त होता है। ज्यादातर लोगों के चित्त में यही आता है कि जीवन में उन्हें कर्म कम या सरल करना पड़े और फल शीघ्र ही बहुत सारा मिल जाए। श्रीमद्भगवत गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म मार्ग से फल आसक्ति यानि परिणाम प्राप्ति की चाह की मन में प्रबलता हटाने का स्पष्ट उपदेश दिया है, परन्तु श्रीकृष्ण के समझाने पर भी अधिकांश लोग फल की इच्छा के वशीभूत होकर कर्म से तो उदासीन होकर बैठ जाते हैं और अंतिम परिणाम यानि फल के इतने पीछे पड़ जाते हैं कि गर्मी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगते हैं। सौ-दो सौ रुपए प्रतिदिन का अनुष्ठान कराके व्यापार से लाभ, शत्रुओं पर विजय, रोगों से मुक्ति, धन-धान्य की वृद्धि तथा और भी न जाने क्या-क्या चाहने लगे हैं, यह कलियुग का प्रभाव ही तो है। क्या हो अगर कर्म करने पर न मिले फलकर्म करने के बाद यदि अंतिम शुभ परिणाम रूपी फल तक मनुष्य न भी पहुंचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वालों की अपेक्षा अच्छी ही रहेगी, क्योंकि एक तो कर्म काल में उसका जो समय बीता, वह संतोष या आनन्द में बीता, उसके उपरान्त फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा नहीं होगा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के घर में कोई प्रियजन बीमार है, वह व्यक्ति डॉक्टरों के पास भाग-दौड़ करता है, हर संभव इलाज कराता है, प्रतिदिन इलाज कराने पर उसके मन में आशा की किरण होती है कि उसके परिवार का सदस्य स्वस्थ हो जाएगा। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीतेगा, अप्रयत्न की दशा में उसके जीवन का उतना ही अंश केवल शोक और दुःख में ही कटेगा। इसके अतिरिक्त रोगग्रस्त परिजन की मृत्यु होने की दशा में वह व्यक्ति आत्मग्लानि के उस कठोर दुःख से बचा रहेगा, जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि उसने पूरा प्रयत्न नहीं किया।
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